नास़ूर….




मेरे द़िल के जख़्म मेरे ज़िस्म के दरव़ाजे खटखटाते है,
फिर ज़िदगी की हस्ती का नास़ूर बन जाते हैं।
हर आती आहटों की आव़ाज जहाँ से दूर ले जाते हैं,
लगता है मेरा म़ौला अब मुझपे मेहरब़ान है।
सारे रिश़्तों नातों से बाहर मुझे बुलाता आसम़ान है।
मेरी ऱूह रक्सनुमा कि उसका महब़ूब बुला रहा है,
इस दुनिया में ना सही,जहाँ-ए-रब़ मुझे प्यार जता रहा है।
ये ज़िस्म का लिबास उतारना है कि वो दिखाके रेशमी ज़री वाले लिब़ास लहरा रहा है।
हाँ मेरी इब़ादतों का इऩाम,मख़मली दरियाँ मेरे कदमों के लिये बिछा रहा है।
आख़िर मेरा म़ौला मुझसे रस़्मे निक़ाह का  इंतज़ार किये जा रहा है।
मैं मीऩारों पे बैठे फ़ाख्ताओं के संग उड़ जाऊंगी वहाँ जहाँ आसम़ान का गुम्बद दिखे जा रहा है।
ज़िगर के ल़हू से लिखी है ये नज़्म ,कह देना आलम से कि तभी रूख़ पे रंग लाल नज़र आ रहा है।

Written by Aruna sharma.29.09.2020;2.30AMAll images taken from Gòogle.

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