
ऐ मुंतजिर!सभी सूफ़ी कह तो गये हैं कि सारी दुनिया मुहाज़िर है,
नफ़रत तो बुरी श़ै’ है,पर द़िल में म़ुहब्बत है लिये बेपनाह दर्द तो दर-ए-ख़ालिक का है उसी के लिये हाज़िर।
तू भटक रहा है दर-ब-दर ना जाने किस इंतजार-ए-बज़्म में,
हमें तो तलाश़ है इक ज़र्रा -ए-ज़लाल तेरी पुरऩम नज़्म में।
हादसों के मारे लिये बोझ गम़ का ये द़िल फिर आन पहुचाँ मेहमाँ बन तेरी म़हफिल में ,
कि पहचान लिया है चेहरा तेरा और ज़वाब ख़ामोश लबों की मज़लिस में।
अब राह-ए-ख़ुदा ख़ुद बतायेंगी तेरे ख़ामोश दर्द-ए-द़िल की दव़ा,
मेरा क्या कि जमीं पे रहूँ कि ब़हिश्त में पर तू रहेगा हमेशा बन के इक सूफ़ी की द़ुआ।
ओह,तू भी मुंतजिर मैं भी मुंतजिर ,ना जाने किस मंजिल की मुराद़ लिये भटक रही है दुनिया सारी।
गऩीमत है कि मैं हूँ ख़ुदा की निग़हबानी में,और तू है
तक़दीर वाला कि ऊपरवाला म़ुस्तैद बना तेरा अंसारी।
(“ज़ाजाकल्ल़ाह ख़ैर”)

Written by Aruna Sharma.26.11.2019
7.15a.m.
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Jazakallah Khair. Āmīn
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So much thanks,dear Muntzir!!
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Thanks for blessings🌷
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