मैं जो हूँ तो हूँ क्या करूँ,
तुमको पसन्द ना आये तो क्या इल्तिज़ा करूँ,
शाम आगई विदाई की,सुब़ह भी तो विदा हुई है।
अब आप ही कहिये खुदा हाफ़िज कहूँ,अलविदा कहूँ
या कसीदा-ए- ख़ुश आमद़ीद का पढूँ।
हर रात एक नयी सुबह लाती है जैसे मोतियों की लड़ी हो,
मैं तुम्हें, तुम मुझे पहनाओ ना ये माला,क्या ख्य़ालों में में उलझी कोई गड़बड़ी है।
मैं जा रही हूँ तो क्या, रौनक-ए-जहाँ को अलविदा कहूँ,
चुना है एक नया म़ुकाम तो क्या ,इस म़ुकाम को भी इब्तिदा-ए-दुआ तो दूँ,
इन नन्हें फूलों की खातिर दिल दे रहा है आस्मान की बुलन्दियों का ख़्वाब आँखों में और ज़ज्बा
कि हर नई उम़र की फ़सल कहे-चल आस्माँ को छूंले।
जा रही हूँ यादों का हसीन तोहफ़ा लिये,
और दिल से तुम सबकी तरक्की का प़रवाना दिये।
मेहमान बन कर आये थे तो जाना भी है,
अब मेरा नया मुक़ाम है,नये रास्ते हैं।
पर यहाँ अभी तुम्हें तो रुकना इसी मुक़ाम पे,
क्योंकी यही से खुलते दरव़ाजे तुम्हारी तरक्की के व़ास्ते हैं।
जाने का मतलब सब कुछ खत्म होना नहीं,इक नई शुरूआत होती है।
मेरे प्यारे साथियों,अलविदा कह तो रही हूँ रवायतों के नाम तुम्हें,
पर याद रखना कि ये एक लफ़्ज ग़र कभी कहना पढे तुम्हें तो याद रखना कि कोई नया जहाँ बुला रहा है तुम्हें।
Written by Aruna Sharma.
11.00pm. 30.06.2019
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